॥षड़्यंत्र॥
उनका रास्ता आगे
बन्द नजर आता है
अन्धकार गहरा है
घना कोहरा है
एक साथ, कई हाथ
जलाने लगे हैं
सबसे खूबसूरत तस्वीर
इंसानियत की
कुछ लोग
छीन रहे हैं फूल
उनके हाथों से
बदले में
थमा रहे हैं बन्दूकें
हो रहा है
गलत इस्तेमाल
उनके जज्बातों का
तोड़ता है यह अहसास
भीतर चटकती है आस्था
खुदपरस्त लोगों के
घिनौने षड़्यंत्र से
बचाना होगा उन्हें
भविष्य सँवारने के लिये।
______________________
॥संस्कृति॥
एक
पहली बार तुमने जब
नमन किया था
जीवन की ऊष्मा का
कहा था-
’अग्निम् इले पुरोहितम्’
लेकिन आज पुर-हित नहीं
तुम्हारी आग
राख में दबी
कराहती जिजीविषा है
अमर है, जियेगा वह
परंतु, घायल, बीमार
प्रदुषित घुटन में
जीवन
श्रीहत अश्वत्थामा सा
उगलता हुआ रक्त, पीव
जी रहा है शाप
अमरत्व का
तुमने कहा था जब-
’इशावाश्यमिदं सर्वं
यत्किंच जगत्यांजगत’
सोचा नहीं होगा तब
एक दिन आस्थाहीन
कबन्ध प्रतिमाएँ
होंगी युद्धरत, बहायेंगी रक्त
एक दूसरे का
तुम्हारे ही नाम पर
कहाँ है आवास
ईश्वर का सब जगह
तुमने कहा था -
’उदारचरितानाम तु
वसुधैव कुटुम्बकम’
किंतु, उदारता अब
स्व की सीमा रेखा में
ऐसी सिमटी है कि
बगल में सोई पत्नी
पर्याय है देह-सुख की
संगिनी, अर्धांगिनी नहीं वह
उसका पत्नी होना
एक सामाजिक अनुबन्ध है
माता होना
प्राकृतिक घटना
जिससे बचा भी
जा सकता है
छोटा करने के लिये
कुटुम्ब
कुरुक्षेत्र आज
एक नाम नहीं
किसी स्थान विशेष का
छोती पड़ गयी है दुनिया,
आज के अपूर्व महाभारत में
गाँव, नगर, महानगर से लेकर
देश, महादेश की
सीमाएं दृष्टिगत हैं,
लेकिन असीम, अदृश्य है
मारक-क्षमता मनुष्य की
प्रभु की तरह
चक्रव्यूह अब
नहीं रहा कौशल
सात महारथियों का
हर आदमी
एक व्यूह बन गया है
दूसरे के लिये
दीव्य-चक्षु संजय की
उतर गयी हैं आँखे
आत्मा की अमरता का
अमर गायक कृष्ण
तलाश रहा है अन्धेरे में
खोई बाँसुरे अपनी
रचाने के लिये रास
जीवन का
दो
ओ हमारी संस्कृति!
विराट विरासत तुम्हारी
कला विज्ञान आध्यात्म की
रोक नहीं पाये हमें
अन्धेरे में जाने से
बढती गया अन्धेरा
बढते गये अन्धे भी
अन्धों के बहुमत का
दौर चला ऐसा
तलाश नहीं रही
आँखवालों की
अब तो अन्धे
आँखें निकाल उनकी
कर लेते हैं शामिल
अपने गिरोह में
बहुमत बनाने को
अन्धों ने
फैला रक्खा है अन्धकार,
धुँधला गई है तुम्हारी रोशनी
कला, दर्शन,
धर्म, विज्ञान जैसी
तुम्हारी संतान
अभिशप्त हैं
ठोकरें खाने के लिये
अन्धे की,
छोर दिया है भीड़ ने
उन्हें राज्मार्गों पर
चीखने चिल्लाने के लिये
स्वतंत्र हैं हम
गण्तंत्र है देश में
शासन है बहुमत का
अन्धों के बहुमत से
होता है जब शासक
सिन्हासन पर
भरी सभा में
नंगा किया जाता है
जब किसे द्रौपदी को
देखने उत्तेजक दृश्य वह
घिर आते हैं दरबारी
सिन्हासन के इर्द-गिर्द
दुर्योधन, दुःश्शासन
जैसे तेरे सपूत
उतारते हैं लाज
तुम्हारी बेटियों की
संस्कृति!
बूढी हो गयी हो तुम
बचा नहीं पाओगी लाज
अपनी द्रौपदियों की
कहीं से बढायेगा चीर
कोई कृष्ण अब
इसमें भी सन्देह है
यह कमसिन आधुनिकता
बहुमत के छोकरे
क्या गुल खिलायेंगे अभी
कहा नहीं जा सकता
इसलिये तुम भी
छुप जाओ अन्धेरे में
नहीं तो इनकी आँखों मे
नयी रोशनी जगाओ
नया दीपक जलाओ।
________________________
॥नहीं लिखनी कविता अब चान्दनी पर॥
इसलिये नहीं
कि आदिकवि से लेकर
आधुनिक कवि तक
असंख्य कवियों ने लिखी हैं
चान्दनी पर कविता
इसलिये भी नहीं
कि जान गये हैं लोग
हक़ीकत चान्द की
उसकी पथरीली जमीन
उसका अस्तित्व जीवनहीन
प्रेरित नहीं करता
रहस्यानुभूति
कारन यह भी नहीं
कि अच्छी नहीं लगती चान्दनी अब
या चान्द का चेहरा नायिका से
नहीं होता उपमित
चान्दनी तो आज भी रूमानी है
रूमानियत के लिये
फिर भी
मुझे नहीं लिखनी कविता
चान्दनी पर
क्योंकि चान्दनी
मुझे उस लड़की की
याद दिलाती है
जिसके जलने से
जख्मी, छाले पड़े चेहरे को
सफेद झकझक क़फन से
ढँकना पड़ा था।
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॥बटखरा बनाम आदमी॥
अपने को तौलना
और बटखरे की अपेक्षा
कम कर उतारना
अपमान है बटखरे का
भले ही सामनेवाला
ग्राहक
ठगा जाये चुपचाप
किंतु, आज
तौलते हुए अपने को
कम कर उतारना तराजू से
सबसे बड़ी नीति है
परंतु
कम कर तौलते हुए
हर आदमी
बटखरे से
कम ही तुले
और कम से कम
तुलता जाये
तो एक दिन
सोचेगा बटखरा
क्या काम है उसका ?
जब हर आदमी
बेईमान है
तो बेचारा बटखरा
क्यों बदनाम है ?
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॥कोई जरूरी नहीं॥
कोई जरूरी नहीं
कि कविता लिखी जाये
जो लिखी जाती है
वह कविता होती है
चाहे वह पुरानी हो या समसामयिक
लेकिन जो अंलिखी है
वह कविता जिन्दगी है
जिसे या तो भोगते हैं
या जीते हैं
जिन्दगी एक पुरानी कविता है
जो सदा नवीन रहती है
प्यार में, संत्रास में
आदमी या आदमखोरों के बीच
पीपल की छाँव हो
या संगीन का साया
सुनहरी धूप हो
या ठिठुरती सर्दी
जिन्दगी का होना
एक शर्त है_ कविता होने के लिये
एक अहसास है जिन्दगी
जंगलों, खेतों से होती
कल-कारखानों तक पहुँची है
और यह आसमान तक जायेगी
लेकिन अहसास की पोशाकें बदलकर
इसे नकार नहीं सकते
मार नहीं सकते तुम
अहसास इंसानियत की रूह है जिसे
लोहे या ऐसे ही कोई कठोर अर्थ में
ढाला नहीं जा सकता
ढाँचे का सच कोई मायने नहीं रखता
अगर ‘सच’ सचमुच इंसानी रूह से नावाकिफ है
ढाँचे का टूटना इंसान के
मन का दरकना नहीं है
यह सिर्फ अहसाह की पोशाक बदलना है
और यह तै करना है
कि हम रूह तक पहुँचने में
देर करने की तरकीब सोच रहे हैं
रक़्त की जुबान
अहसास से अलग नहीं होती
और रक़्त जब सड़कों पर बहता है
तो यह अनलिखी कविता
कोई महाकाव्य बनने से रह जाती है
और महाकाव्य अतीत का दरक जाता है
उसके सर्ग बिखर जाते हैं
धर्म-संस्कृति के गौरव-पुरुष
शर्म से सिर झुका
आदमी के लहु पर पाँव धरते
नजर आते हैं
और
उनकी आँखे नम रहती हैं!
____________________________
॥इतिहास सन्दर्भ:एक॥
हो गया था वह गूँगा
काट दी थी
जुबान उसकी
हालत ने और
कर दिया था सामने
इतिहास से
सम्वाद के लिये
कर सकता है
कोई बात क्या
कटी जुबान से
वह भी इतिहास जैसे
वाचाल के साथ
हजारों दास्तान हैं
सैकड़ों साल के
रहता है वह
इस दम्भ में भी
कि आनेवाला दिन
बन जायेगा अगली किस्त
उन्हीं दास्तानों की
साहस किया उसने
फिर भी
कैनवास, कूँची और
रंगों के सहारे
खींचने लगा तस्वीरें आज की
(गनीमत थी
कटे नहीं थे हाथ अभी)
उसने खींचे दायरे
दायरों के बीच
कुछ और छोटे दायरे
छींटे दिये रक़्त के
कहीं रक्खा वह
मांस के लोथड़े
कटे हाथ-पाँवों का
लगा दिया अम्बार
हवाला दिया
अपनी कटी जुबान का
उजागर किया उसने
बेरहमी हालात की
मुस्कुराया इतिहास
खलनायक सा
कुटिल मुस्कान
और रहस्यमय तरीके से
अतीत के पन्ने पलटने लगा
दिखाने लगा उसे धीरे-धीरे
उत्सुकता से
देखने लगा वह
लेकिन तुरंत उसने
बन्द कर लीं आँखें
पीड़ा और दहशत में
क्योंकि
उभर रही थी
हर पृष्ठ पर
उसकी ही बनाई
तस्वीर।
******
॥इतिहास सन्दर्भ:दो॥
प्रतिबिम्बित हैं
आईने में
कुछ चेहरे
साबुत चमकते हुए
दर्प से
कुछ चेहरे हैं
घायल
क्षत-विक्षत
रक्त-प्लावित
एक सदी से
दूसरी तक
सफर करते पाँव
लहुलुहान लगते हैं
दीखता है कहीं
ठुकी कीलें हाथ पाँवों में
पैगम्बरों के
जिससे रिसता लहू
तर-बतर कर रहा है
इंसानियत को
आज भी
महान सदियों
और हस्तियों के बीच
ताजा है
इंसान के जख्म
जो दिये हैं
दरिन्दों ने
लेकिन दमकते हैं
चेहरे वे
जख्म के फूल से
चमकते हैं बूँदें
खून और पसीने की
रौशन है उनका व्यक्तित्व
दरिन्दगी से लड़ते
नहीं हुई है बन्द
लड़ाई
जारी है
बदस्तूर
वर्तमान
दिखाता नहीं आईना
यहाँ परछाइयाँ नहीं
खड़ी हैं सामने सच्चाइयाँ
इनके चेहरे से
अतीत के दग-धब्बे मिटाना
जरूरत है
आज की।
________________________
॥करवट॥
सोया रहा वर्षों वह
पहन लिया था उसने
कवच मौन का
अपनी कायरत में
सोचता वह
सपने देखता कभी-कभार
याद दिलाता
जैसे खुद को
जिन्दा है
अभी जिन्दा है
क्योंकि सोच लेता है
सपने देख लेता है
गुजर जाते हादसे
उसके इर्द-गिर्द
उससे होकर भी
लेकिन कुम्भकर्ण वह
पड़ा-पड़ा बिस्तर पर
पूछ लेता खुद से
कभी-कभी
’क्या सम्भव है कोई तरीका
पुरअसर बनाने का
इंसानियत के उसूलों को’
इससे आगे
विराम ले लेती थी
उसकी चिंता
वह खोया रहता
अपने या इतिहास में
दुहराता अतीत भीतर
उसकी कायरता
बन गयी थी नियति
खुद को देखना
इतिहास के आईने में
दूबना-उतराना
अतीत के सागर में
बन गया था
शरण-स्थल उसका
रखने लगा था वह
हादसों से
अलग अपने को
अलगनी के कपड़ों सा
लेकिन
इजाजत नहीं देती जिन्दगी
वैसी लापरवाही की
एक दिन उसने
खींच लिया उसे
बाँह पकड़
अतीत के गर्त से
छीन ली रोटी
ठीक सामने से उसके
सूखा पड़ गया
उसके भीतर
पानी के अभाव में
खड़ी हो गयीं दीवारें
बाहर
और पाया वह
कैदी है वर्त्तमान का
पार किये थे उसने
जितने सैलाब खून के
बन्द कर आँखें
पी गया था
मौत की खबरें चाय के साथ
फेंकता रहा था रद्दी में
अनगिन मसले आज के
रोज-ब-रोज
अखबार के साथ
सोता रहा था बेफिक्र
मान कर मौत को दस कदम दूर
लपके सब उसकी ओर
नोचने लगे बोटियाँ
तिलमिलाया वह
रोया-चिल्लाया
उसकी चीख में फट पड़ा मौन
हरकत में आ गये हाथ पाँव
तन गयीं नसें
बरसने लगे अंगार आँखों से
अहसास हुआ उसे
लड़ने की नियति भी उसी की है
तोड़कर मोटी परतें
इतिहास की गर्द झाड़
अंगराइयाँ लेती हुई
एक नई जिन्दगी
लेने लगी करवट
________________________
॥जिजीविषा की दूब॥
एक से एक
नायाब तरीकों से
उत्पीड़ण, त्रास, यंत्रणा देकर
तब्दील कर दिया है
कुछ लोगों नें
यंत्रणा-शिविर में देश को
दुहाई देते हुए
मूल्यों, उसूलों की
हवाले किया है दरिन्दों को
करोड़ों की जिन्दगी
तंगदिली, तंगदिमागी में
आकाओं ने बान्धे हैं मंसूबे
रचा है चक्रव्यूह
जिसमें अभिमन्यु सा कोई
अंतिम दम तक
लड़कर भी
अभीशप्त है मरने को
निहत्थों पर वार करके
कराते हैं पहचान महारथी
अपने वीरत्व का
चाहते है वे जीत
किसी तरह,
जीवन नहीं
लेकिन हरी हो उठती है
दब-कुचलकर भी
जिजीविषा की दूब
जीने के लिये फिर से
____________________
॥बुद्धिजीवी:एक॥
जब तक आग
नहीं पहुंचती
हमारे घर तक
किसी के घर जलने का
अफ्सोस है हमें
लेकिन आग बुझाने का
पुख्ता इंतजाम
हमारे वश में नहीं
जब तक कोई आन्धी
नहीं हिलाती
हमारी जड़ें
किसी दरख्त के गिरने का
सदमा होता है
लेकिन रोक सकें आन्धी
यह हमारी
क्षमता से बाहर है
बाढ में बह गये घरों
मर गये लोगों के
आँकड़े पढते है हम
अखबार में
या पान की दुकानों
या कौफी हाउस में
उन आंकड़ों पर
उत्तेजित बहस करते हुए
आँसू सुखा लेते हैं
आक्रोश में
सूखे से फट पड़ी
धरती की छाती से
पानी निकालने की योजनाएँ
तैयार करते हुए
नल्कूप बिठाते हैं
फाइलों में
और बाँट लेते हैं
करोड़ों की राशि
अकाल से बचने के लिये
देश के नक्शे में
पर रही दरार पर
पुल बाँधते हैं बहसों के
संसद में
या मंचों पर बाहर
साम्प्रदायिक, जातीय दंगों पर
सार्वजनिक हैं हमारी चिंताएं
लेकिन जानते हैं सब
जब हमारी खुद की
जरूरतें जरूरी हैं
तो क्षणिक हैं
सार्वजनिक चिन्ताएं
करोड़ों की बदहाल आबादी में
हमारे हिस्से की
अपनी भी बदहाली है
और इन्हें दूर करना
लाचारी है अपनी
भ्रष्ट समझौतों ने
आदमकद आदर्शों के सामने
बौना बना दिया है हमें
*********************
॥बुद्धिजीवी:दो॥
हमारे गले तक
न पहुचे हाथ
आततायियों के
इसलिये सहलाते
आये हैं उन्हें बरसों से
अपनी कायरता में
हमनें पहनाये हैं उन्हें
धर्म, जाति
भाषा, संस्कृति की
उलझी व्याख्याओं से तैयार
बुलेटप्रुफ पोशाकें
सताता रहता है भय
कहीं हमारे ही बनाये हथियार
इस्तेमाल न कर दें वे
हमें रास्ते से हटाने के लिये
इसलिये
बुहारते हैं रस्ता उनका
निकालते हैं अर्थ वे
हमारी चुप्पी से
समझाते हैं बच्चों को
निहितार्थ ‘सत्यमेव जयते’ का
नीति, उपदेश के
मान लेते हैं हक अपने
कम होते आइ क्यू
झिझकते हुए भी
पूछते हैं खुद से हम
’कर सकते हैं कुछ
इंसानियत के लिये ?’
______________________
॥विद्रुप॥
खुदपरस्त
सत्ता-मदान्ध
बेहूदे दरिन्दों के
गिरफ्त में छटपटाता
वह चीखता चिल्लाता है
जिन्दगी की बेहूदगियों पर
और बेहूदगियाँ चश्पाँ हो जाती है
उसके चेहरे पर
अजनबी लगता है वह
उनके बीच, एक विदूषक
जिससे करते हैं वे
अपना दिलबहलाव
उन्होंने ही
चूसा है रक्त
उसकी धमनियों, शिराओं से
उसकी हड्डियों पर हैं निशान
उनके आततायी दाँतों के
उसकी पीठ बनाकर पाँवदान
वे चढते हैं सिन्हासन पर
छीन लेते हैं
उसके सपने
हजम कर जाते हैं
उसका हक़
और इत्मिनान से
मुस्काते, बतियाते
देखते हैं तमाशा
उसके चीखने-चिल्लाने का
आ रही है मौत
दबे पाँव, धीरे-धीरे
उसके करीब
नृशंस षड़यंत्र में
लेकिन
हरे हैं पेड़ अभी
उसके आस-पास
जीवित है घास
आक्षितिज फैली
धरती की हरीतिमा
उसकी आँखों में
है अभी
है अभी जिजीविषा का विस्तार
पर्वत से सागर तक
उसकी आँखों में
अभी झाँकता है
सूरज संकल्प का
है अभी विश्वास
वह एक दिन
लेगा हिसाब
उन दरिन्दों से